जैन साधना में जो ध्यान है वह चित्त की एकाग्रता का नाम है और वहां तो यह कहा गया कि यदि तुम ध्यान की गहराई में डूबना चाहते हो तो ‘तुम कोई भी चेष्टा मत करो, कुछ बोलो मत, कुछ सोचो मत, आत्मा को आत्मा में स्थिर रखो; यही परम ध्यान है।’ शून्य भाव में पहुंच जाना, विचार शून्य, विकल्प शून्य, क्रिया शून्य, वह परम ध्यान है। उस परम ध्यान को पाने के लिए क्या करें, तो कहते ‘यदि तुम विशिष्ट ध्यान की सिद्धि के लिए अपने चित्र को स्थिर करना चाहते हो इष्टाइष्ट पदार्थों में राग द्वेष मोह मत करो। सामने जो आ जाए उसे जानो और देखो, उस सहज भाव का नाम ही ध्यान है। बाकी है जो प्रक्रिया का ध्यान है वह एक यौगिक क्रिया जिसे जैन साधना में अधिक महत्व नहीं दिया गया है। जैन ध्यान में योग की शुद्धि की जगह उपयोग यानी भावों की शुद्धि को महत्व दिया गया। हमें उस तरफ ध्यान देना चाहिए और उसके बहुत अच्छे परिणाम भी है, जो वर्तमान की साइकोलॉजी से भी जुड़े हुए हैं।
भावना योग की बात है, वह ध्यान नहीं है। वह एक अलग साधना, एक अभ्यास, एक ऐसा योग जिसके बल पर हम अपनी आत्मा का निर्मलीकरण कर सके, अपनी चेतना की विशुद्धि बढ़ा सकें। वर्तमान में एक सिद्धांत विकसित हुआ ‘ला ऑफ अट्रैक्शन’ हमारे विचार साकार होते हैं, हम जैसा सोचते हैं जैसा बोलते हैं जैसी क्रिया करते हैं संस्कार हमारे सबकॉन्शियस में पड़ जाते हैं और वही कालांतर में प्रकट होकर हमारे कॉन्शियस माइंड को एक्टिव करते हैं और उससे हमारी प्रवृत्तियां बनती है। यह लॉ ऑफ अट्रैक्शन का सिद्धांत है इसी के बल पर द पावर ऑफ सबकॉन्शियस माइंड जैसी बातें लोगों के बीच आई। यह तो हमारी चीज है यही जैन साधना है, पुरातन काल से यह साधना हमारे यहां चलती है। यह हमारे पूरे अध्यात्म, जैन साधना का प्राण है। जैन आध्यात्मिक या भावना योग बस पश्चिम वालों में और हमने इतना ही अंतर है कि उन्हें पैसे कमाने के लिए पाने के लिए इस बात की चिंतन की बात की और भारत के ऋषि मुनियों ने परमात्मा के लिए। उन्होंने अर्थ के लिए बात की, हमने परमार्थ के लिए बात की यह उनमें और हम में अंतर है। हम जब हमारे आचार्य कुंदकुंद के ग्रंथों को पढ़ते हैं, जो हमारे समयसार की उक्ति है हम जो भावना भाते वह साकार होता है। थॉट बिकम थिंग्स का हमारा पुराना रूपांतरण है। हम जो भावना भाते हैं वह होता है। तो क्या चाहिए हमें, जड़ नहीं चाहिए, संसार नहीं चाहिए, भोग नहीं चाहिए, अर्थ नहीं चाहिए, परमार्थ चाहिए, परमात्मा चाहिए, त्याग चाहिए, योग चाहिए। तो उसके लिए कहा कि तू आत्मा को पाना जाते हो तो हर पल ध्यान करो मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं, मैं शुद्ध आत्मा हूँ, मैं पवित्र आत्मा हूँ, इसका अनुचिंतन बार बार करो। इससे क्या होगा, इसके अनु चिंतन से तुम्हारे सबकॉन्शियस में यह बात बैठेगी; अभी तुम अपने आप को रागी, द्वेषी, मोहि, कामी, क्रोधी, लोभी, स्त्री-पुरुष, दीन, रूपवान, कुरूप, अमीर, गरीब, राजा, रंक, छोटा बड़ा मान रखे हो; जब तुम्हारे मन में आएगी कि मैं तो केवल एक आत्मा हूँ, शुद्ध आत्मा पवित्र आत्मा तो तुम्हारा मन बदल जाएगा, जीवन बदल जाएगा, तुम्हारी आत्मा घटित हो जाएगी और एक पल ऐसा आएगा कि तुम अपनी आत्मा को प्राप्त कर लोगे।
आचार्य कुंदकुंद की उस उक्ति को हमें ध्यान रखना चाहिए वो कहते हैं जो मुनि नित्य अपनी इस आत्मा की भावना भाता है, बार बार बार बार बार बार उस सब दुखों से शीघ्र मुक्त हो जाता है। आचार्य कुंदकुंद की इसी बात को छठवीं शताब्दी में हमारे एक महान आचार्य पूज्यपाद ने इसी बात को और व्यवहारिक रूप से व्याख्याइत करते हुए कहा ‘तुम बस पर हर पल सोहम सोहम सोहम सोहम मेरे इस दृश्य जगत से परे भीतर में स्थित अमूर्त शुद्ध ज्ञाता दृष्टा चेतन रूप जो आत्म तत्व है वह मैं हूं। सोहम सोहम सोहम वह तत्व रूप मैं हूँ, वह तत्व रूप मैं हूँ, वह तत्व रूप मैं हूँ; इस प्रकार के संस्कार को जिसने प्राप्त किया; बार बार बार बार बार बार उसकी भावना भाने वाले, उसी में उसके दृढ़ संस्कार बन जाने से अपनी आत्मा परमात्मा की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। यह बीज है भावना योग का। क्यों ना हम इसी बात को ठीक तरीके से परिवर्तित करें। पश्चिम की उन बातों को पढ़ा तो देखा कि वो जो बोलते हैं वह बातें हमारे शास्त्रों में, भगवान महावीर ने हम सब के जीवन को पवित्र बनाने के लिए बताई है। इससे फैलाना चाहिए, जन-जन तक जानी चाहिए, यह जैन धर्म का प्राण है, जैन साधना का प्राण है।
हमारे भगवान महावीर ने, हमारे तीर्थंकरों ने हम मुनियों को अपने जीवन को विशुद्ध के लिए कुछ साधना बताइ। उसमें सामायिक है, प्रतिक्रमण है, स्तुति है, बंदना है, स्वाध्याय है और प्रत्याख्यान है। जब पढ़ा, देखा कि इसमें पूरा मनोविज्ञान छिपा है, सामाजिक में आत्म तल्लीनता है, प्रतिक्रमण में दोषों का शोधन है और प्रत्याख्यान में भावी दोषों के प्रति जागरूकता है भविष्य के प्रति सतर्कता का संकल्प है और स्तुति वंदना में एक प्रार्थना है। जब हम लोग प्रतिक्रमण पाठ करते हैं तो हम लोगों के प्रतिक्रमण वह सब चीजें बातें हैं कि क्या मुझे ग्रहण करना क्या मुझे छोड़ना है। वर्तमान में पश्चिम में एक पद्धति विकसित हुई ऑटो सजेशन की। ऑटो सजेशन का मतलब है आप जो चाहते हैं उसकी फीडिंग आप दीजिए, सेल्फ मोटिवेशन होगा और वह आप पाएंगे आपको जो चाहिए। उसकी भावना भाईये, और जिससे बचना चाहते उसको छोड़ते जाइए तो यह सब बातें दिखी और लगा कि इन बातों को यदि हम ठीक तरीके से प्रस्तुत करें जीवन में आमूलचूल परिवर्तन होगा।
इसे ही स्तुति और बंदना को प्रार्थना में गर्भित किया और कायोत्सर्ग को सामायिक में गर्भित करके कार्यक्रम डिजाइन किया गया। नया कुछ नहीं, भगवान की बातों की नयी व्याख्या है। चार चीज़ें है प्रार्थना inner nourishment , प्रतिक्रमण inner cleaning , प्रत्याख्यान inner resolution और सामायिक inner reflection जो हमारे भीतर के अंतःकरण की शुद्धि की प्रक्रिया है। इसमें सबसे पहले भगवान से कुछ अच्छी प्रार्थना करते हैं अपने आपको सकारात्मक शांत और सक्षम बनाने की; इसके बाद हम अपने अतीत के दोषों को झांक कर के उसे साफ करने की कोशिश करते हैं, अपनी निंदा- गृहा करते हुए मन को साफ और स्वच्छ बनाना, फिर भावी जीवन को, आज के दिन को उत्सव की तरह मैं कैसे जियूं इस संकल्प को दोहराते है यह प्रत्याख्यान कहलाता है और इसके बाद आत्म से लीनता सामायिक, ‘शुद्धोहम बुद्धहम निरंजनओहम’ मैं शांत हूं मैं स्वस्थ हूं मैं निरंजन हूँ। इस पद्धति को अपनाएं इसे आजकल पश्चिम में न्यूरोसाइको इम्यूनोलॉजी नाम दिया है।
न्यूरोसाइकोइम्यूनोलॉजी क्या है जब हम सोचते हैं तो हमारी भावनाओं का हम पर बहुत असर पड़ता है हमारी भावनाओं से हमारी ग्रंथियों में परिवर्तन आता है हमारी अनेक ग्रंथियां है जितनी अंत स्रावी ग्रंथि है हमारी भावनाओं से प्रभावित होती है। कोई व्यक्ति एकदम उदास बैठा हो रो रहा हो उसका चेहरा दिखे उसे कोई मोटिवेट कर दे उसके मन के बोझ को उतार दे देखते देखते चेहरा खिल जाता है। उदास क्यों हुआ उसके अंदर की गलतियों में वैसा स्त्राव हुआ, चेहरा खिला क्यों क्योंकि उसकी ग्रंथियों का स्त्राव बदल गया। यह रोज का अनुभव है, तो जब हम सोचते हैं हमारी भावना से हमारे न्यूरो सिस्टम में भी परिवर्तन होता है क्योंकि हमारी अंतः स्रावी ग्रंथियों में बदलाव आता है और उससे हमारी इम्युनिटी में असर पड़ता है। तो भावना योग एक ऐसी प्रक्रिया है जो तन को स्वस्थ, मन को मस्त और आत्मा को पवित्र बनाती है।
भावना योग के विषय में एक अनुभव, एक पुस्तक में था कि एक के घुटने का ऑपरेशन होना था डॉक्टर से अपॉइंटमेंट ले लिया लेकिन जब उसको इस तरह के ट्रीटमेंट की बात की गई उसने अपने ऑपरेट न करवाकर अपनी भावनाओं के बल पर घुटने को ठीक कर लिया। एक का हार्ट का ऑपरेशन होना था वह हार्ट के ब्लॉकेज को भावनाओं के बल पर खोल दिया। उसके लिए चाहिए कि हम अपने शरीर के जो एनाटॉमी है उसका ध्यान रखें और जहाँ जहाँ ब्लॉकेज है अपनी भावनाओं से वहां अच्छी तरंगे भेजें उसकी क्लीनिंग करें। उस समय मुनिश्री प्रमाणसागर जी स्वयं को एक प्रॉब्लम हुई उनके दाहिने हाथ में एक नस सूखने लगी। यह 2009 की बात है, 2008 से ये प्रॉब्लम हुई थी नस सूखने के कारण हाथ पौन इंच पतला हो गया और उस समय पिच्छी भी भारी लगती थी जबकि पिच्छी का वजन 200 ग्राम से ज्यादा नहीं होता पिच्छी भी वजनदार लगती थी। डॉक्टरों ने देखा MRI हुआ VEINS सूख गई, इसका कोई इलाज नहीं और आज भी मेडिकल के हिसाब से इसका कोई इलाज नहीं है। लेकिन मुनिश्री ने अपनी भावनाओं के बल पर मेंटल रेडिएशन देकर उसको ठीक कर दिया। आज दोनों हाथ ठीक है।
तो यदि भावना योग को दोहराएंगे यह आपके लिए बहुत उपयोगी है। प्रमाणिक एप पर उपलब्ध है। अपने शरीर को आप दिन भर अच्छा काम लेना चाहते हैं तो आधा घंटा तो आपको देना पड़ेगा। आधा घंटा अपने शरीर को देंगे तो बाकी बचे साढ़े 23 घंटे में आपको अलग ऊर्जा होगी, आप अपने प्रति ज्यादा सकारात्मक हो सकेंगे, शांत हो सकेंगे। पर्युषण से भावना योग जब शुरू किया तो बहुत लोगों ने अपना एक्सपीरियंस मुनिश्री के पास आकर शेयर किया, पत्रों के माध्यम से भी बात की कि उनके जीवन में व्यापक बदलाव है। यह बदलाव घटित होगा तभी, जब आप ऐसा कर सकेंगे। सुबह, सुबह ना हो तो शाम को, सुबह का समय सबसे उपयुक्त होता है यह बहुत अच्छी चीज है। हमें इसका व्यापक प्रचार-प्रसार करना चाहिए। यह मूलतः जैन साधना है, भगवान महावीर की साधना है। मुनिश्री ने इसे बहुत रिसर्च के बाद तैयार किया, गाइडेड मेडिटेशन भी आजकल चलता है तो उसको ऑन करिए, सुनते जाइये और जो निर्देश आपको मिले वैसा महसूस करते जाइये। आप देखेंगे कि आपका मन कितना शांत होता है, कितना संयत होता है। चीजों की उपलब्धि के लिए हमारे पास कुछ नहीं है, मन की शांति के लिए आप चाहोगे इससे बढ़कर और कुछ नहीं है।